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कांग्रेस पार्टी की वह कहानी जिसके वोटबैंक को लालू-नीतीश-मुलायम-मायावती ने छीना | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । करीब 35 साल से यूपी-बिहार की सत्ता से दूर कांग्रेस का कभी न खत्म होने वाला पतन आज भी राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक पहेली है। देश की सबसे पुरानी पार्टी का पारंपरिक वोटबैंक रातों-रात क्षेत्रीय क्षत्रपों के पास कैसे चला गया?
Young Bharat News का यह Explainer बताता है कि मंडल-कमंडल की राजनीति ने कैसे कांग्रेस को खत्म किया, क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ, और क्या राहुल गांधी की नई रणनीति इन 'लोकल पार्टियों' को खत्म करके ही कांग्रेस की वापसी का रास्ता बना सकती है।
उत्तर प्रदेश और बिहार वह जमीन जहां कांग्रेस की जड़ें सूखीं
कभी देश की राजनीति का केंद्र रहे उत्तर प्रदेश UP और बिहार Bihar आज कांग्रेस पार्टी के लिए एक राजनीतिक रेगिस्तान बन चुके हैं। यह कहानी केवल हार-जीत की नहीं है, बल्कि दशकों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव की है जिसने देश की सबसे पुरानी पार्टी को लगभग हाशिए पर धकेल दिया है। सवाल यह है कि आखिर क्या हुआ, कब हुआ, और क्यों हुआ?
राजनीतिक इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1980 के दशक तक, ये दोनों राज्य ही कांग्रेस की चुनावी सफलता का आधार हुआ करते थे। लेकिन आज स्थिति यह है कि यूपी विधानसभा 2022 में कांग्रेस को केवल 33% वोट और मात्र 2 सीटें मिलीं, जबकि बिहार में उसका वोट शेयर 10% से भी नीचे बना हुआ है।उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आखिरी बार 1989 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई थी, जब नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने थे।
बिहार में यह कहानी थोड़ी अलग है लेकिन अंत समान है—1990 में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी और कांग्रेस तब से ही सत्ता से बाहर है। करीब तीन दशकों का यह वनवास कांग्रेस के लिए सिर्फ एक राजनीतिक खालीपन नहीं, बल्कि एक 'अस्तित्व संकट' बन चुका है। क्या आप जानते हैं कि कांग्रेस के इस पतन के बाद, इन दोनों राज्यों से ही केंद्र की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव अचानक बढ़ गया? यही वह कड़ी है जिसे समझना सबसे जरूरी है।
कांग्रेस का पतन तीन दशकों की दर्दनाक कहानी और तीन बड़े तूफान
कांग्रेस के पतन को सिर्फ एक-दो घटनाओं में समेटना गलत होगा। यह तीन प्रमुख राजनीतिक तूफानों का नतीजा था जिसने पार्टी के किले को ढहा दिया।
मंडल का महाविस्फोट सामाजिक न्याय की राजनीति: साल 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिसके तहत ओबीसी अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मिला। इस निर्णय ने भारतीय राजनीति का पूरा भूगोल बदल दिया।
कांग्रेस का नुकसान: कांग्रेस ने हमेशा 'जातियों में बांटने' जैसे व्यापक नारों पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन वह कभी भी 'गरीबी हटाओ' की राजनीति को गहराई से नहीं समझ पाई। मंडल की राजनीति ने ओबीसी समुदायों को संगठित किया और उन्हें लालू प्रसाद यादव बिहार और मुलायम सिंह यादव यूपी जैसे अपने-अपने मजबूत नेता दे दिए।
वोटबैंक शिफ्ट: कांग्रेस के पारंपरिक ओबीसी वोट और दलितों का एक हिस्सा इन क्षेत्रीय नेताओं के पास शिफ्ट हो गया, जिन्होंने उन्हें न केवल राजनीतिक भागीदारी दी, बल्कि 'अस्मिता' Identity की भावना भी दी।
कमंडल की सुनामी धार्मिक ध्रुवीकरण की लहर
बीजेपी ने राम जन्मभूमि आंदोलन को तेज किया। इस आंदोलन ने राजनीति को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत किया।
कांग्रेस का नुकसान: कांग्रेस दोनों तरफ फंस गई। अगर वह हिंदुत्व का समर्थन करती, तो उसका मुस्लिम वोटबैंक छिटक जाता। अगर वह इसका विरोध करती, तो बहुसंख्यक हिंदू आबादी बीजेपी की तरफ चली जाती। कांग्रेस ने बीच का रास्ता चुना, जो अंततः सबसे खराब साबित हुआ।
वोटबैंक शिफ्ट: कांग्रेस के पारंपरिक उच्च जाति के समर्थक ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया समुदाय, जो कांग्रेस के आधार स्तंभ थे, वे पूरी तरह से बीजेपी की तरफ चले गए।
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मुस्लिम मतदाता का मोहभंग और सुरक्षा की तलाश
बाबरी मस्जिद विध्वंस 1992 के बाद, मुस्लिम मतदाता ने महसूस किया कि कांग्रेस पार्टी में उनका धार्मिक वजूद खतरे है।
कांग्रेस का नुकसान: मुस्लिम समुदाय ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सपा और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल राजद को सबसे मजबूत संरक्षक के रूप में देखा। यह एक भावनात्मक और सुरक्षा-आधारित शिफ्ट था जिसने कांग्रेस के कोर सपोर्ट को हमेशा के लिए तोड़ दिया।
क्या कांग्रेस का 'वोटबैंक' आज भी इन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ है, या बीजेपी के हिंदुत्व मॉडल ने अब क्षेत्रीय दलों के आधार को भी हिला दिया है? आगे जानिए...वोटबैंक का 'महा-शिफ्ट' कांग्रेस का पारंपरिक वोटर गया कहां?
कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने की कहानी
कांग्रेस के वोटबैंक के खिसकने की कहानी है। यह समझना जरूरी है कि यह वोटबैंक कहां गया और इन क्षेत्रीय पार्टियों ने इसे कैसे अपनाया।
| पारंपरिक कांग्रेस वोटबैंक | यूपी-बिहार में शिफ्ट हुई पार्टी उदाहरण | शिफ्ट का मुख्य आधार |
| मुस्लिम M | समाजवादी पार्टी UP, RJD Bihar | धर्मनिरपेक्षता, 'MY' समीकरण, और अल्पसंख्यक सुरक्षा का भरोसा। |
| दलित D | बहुजन समाज पार्टी BSP UP | सामाजिक न्याय, अंबेडकरवादी राजनीति, और दलित अस्मिता की राजनीति। |
| ब्राह्मण B/उच्च जातियां | भारतीय जनता पार्टी BJP | हिंदुत्व, राष्ट्रीय सुरक्षा, और मजबूत नेतृत्व का आकर्षण। |
| ओबीसी गैर-यादव | विभिन्न क्षेत्रीय दल, बाद में BJP | जातिगत पहचान और स्थानीय लाभ की राजनीति। |
क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के 'जातिविहीन' और 'राष्ट्रीय' अपील को नकारते हुए, एकदम सटीक जातिगत पहचान पर अपनी राजनीति खड़ी की। उन्होंने 'सामाजिक न्याय' को केवल चुनावी नारा नहीं, बल्कि शासन का केंद्र बनाया।
लालू प्रसाद यादव बिहार: उन्होंने यादवों और मुसलमानों M-Y समीकरण को एक साथ लाकर कांग्रेस के सामाजिक आधार को पूरी तरह से निगल लिया।
मायावती यूपी: उन्होंने दलितों खासकर जाटवों को संगठित करके, 'बहुजन' की अवधारणा को कांग्रेस के 'दलित-हितैषी' होने के दावे से अधिक मजबूत साबित किया।
मुलायम सिंह यादव यूपी: उनका आधार भी मुस्लिम और यादव समीकरण पर टिका रहा।
साल 1990 के बाद कांग्रेस की स्थिति एक ऐसे पुल की तरह हो गई जो दो किनारों को जोड़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन दोनों ही किनारों से भीड़ नए, मजबूत पुलों क्षेत्रीय दलों की तरफ चली गई।
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क्षेत्रीय दलों का उदय: क्या ये कांग्रेस के 'हत्यारे' हैं?
कांग्रेस पार्टी के पतन के बाद जो पार्टियां सत्ता में आईं, वे 'लोकल' या 'क्षेत्रीय' पार्टियां थीं। क्या हम उन्हें कांग्रेस का 'हत्यारा' कह सकते हैं?राजनीतिक विश्लेषण के अनुसार, ये दल कांग्रेस के 'हत्यारे' नहीं, बल्कि उसके राजनीतिक आधार के 'उत्तराधिकारी' थे। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व की कमजोरी, नीतियों की अस्पष्टता, और जमीनी संपर्क की कमी का फायदा उठाया।
इन पार्टियों ने तीन प्रमुख चीजें कीं जिसने कांग्रेस को अप्रासंगिक बना दिया।
पहचान की राजनीति को मजबूत किया: उन्होंने 'दलित', 'ओबीसी', 'यादव' जैसी पहचानों को चुनावी इंजन बना दिया, जबकि कांग्रेस अभी भी 'गरीबी' और 'विकास' जैसे व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों पर टिकी थी।
मजबूत लोकल नेतृत्व लालू, मुलायम, मायावती, नीतीश कुमार: शुरुआती दौर में जैसे नेताओं ने अपने समाज में एक 'क्षत्रप' की छवि बनाई, जो दिल्ली के केंद्रीय नेतृत्व के आदेश पर नहीं चलते थे। इसके विपरीत, कांग्रेस का नेतृत्व दिल्ली-केंद्रित और अक्सर राज्यों में कमजोर नजर आया।
संगठन और कैडर की मजबूती: सपा, बसपा और राजद ने अपने जातीय आधार पर समर्पित जमीनी कैडर तैयार किया, जो चुनाव के समय कांग्रेस के ढीले-ढाले संगठन से कहीं अधिक प्रभावी साबित हुआ।
आंकड़े बोल रहे हैं कांग्रेस की न्यूनतम उपस्थिति: यूपी विधानसभा 1989 बनाम 1989 में लगभग 35% वोट शेयर, 208 सीटें। 2022 में 33% वोट शेयर, 2 सीटें।
बिहार विधानसभा 1985 बनाम 1985 में कांग्रेस को 50 से अधिक सीटें मिली थीं। 2020 में केवल 19 सीटें गठबंधन के बावजूद यह डेटा स्पष्ट करता है कि क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के लिए चुनावी जमीन लगभग खत्म कर दी है।
राहुल गांधी का 'मिशन लोकल': क्या क्षेत्रीय दलों को खत्म करना ही एकमात्र रास्ता है? यहीं पर सबसे बड़ा और सबसे विवादास्पद सवाल आता है। क्या कांग्रेस की वापसी क्षेत्रीय क्षत्रपों को खत्म किए बिना संभव नहीं है?
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि राहुल गांधी की हालिया रणनीतियां, जैसे 'भारत जोड़ो यात्रा' और राज्यों में स्थानीय नेताओं को अधिक स्वायत्तता देना, इसी लक्ष्य की ओर इशारा करती हैं।
तर्क 1 - वोटबैंक की ओवरलैपिंग Overlap और सीधा मुकाबला: कांग्रेस को वापस उठने के लिए वही वोटबैंक चाहिए जो आज सपा, बसपा, और राजद के पास है मुख्यतः मुस्लिम, दलित, और गरीब ओबीसी। जब तक ये पार्टियां मजबूत हैं, तब तक कांग्रेस को इन समुदायों से वोट नहीं मिल सकते।
क्षेत्रीय दल सीधे तौर पर कांग्रेस के रिवाइवल के रास्ते में खड़े हैं। इसलिए, राहुल गांधी का मिशन 'कांग्रेस को उसकी पुरानी जमीन' पर वापस लाना है, जो सीधे तौर पर क्षेत्रीय दलों के आधार पर हमला करना है।
तर्क 2 - विचारधारा और नेतृत्व की लड़ाई: क्षेत्रीय पार्टियां अक्सर किसी एक परिवार या जाति समूह के इर्द-गिर्द घूमती हैं और उन पर 'भ्रष्टाचार' या 'जातिवाद' के आरोप लगते रहे हैं। राहुल गांधी इन पार्टियों के खिलाफ 'न्याय', 'सच्ची धर्मनिरपेक्षता', और 'राष्ट्रीय एकता' जैसे बड़े वैचारिक मुद्दे उठाकर खुद को एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, जो क्षेत्रीयता से ऊपर हो।
तर्क 3 - 'बड़ा भाई' बनने की कोशिश: वर्तमान में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा है। लेकिन यूपी और बिहार जैसे राज्यों में, कांग्रेस की भूमिका 'जूनियर पार्टनर' की है। कांग्रेस जानती है कि जब तक वह इन राज्यों में अकेले 20-30% वोट शेयर हासिल नहीं कर लेती, तब तक उसे क्षेत्रीय दलों द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जाएगा। इसलिए, राहुल गांधी की रणनीति केवल क्षेत्रीय दलों को खत्म करने की नहीं है, बल्कि उन्हें राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की है ताकि गठबंधन में कांग्रेस 'बड़ा भाई' बन सके।
यूपी-बिहार में कांग्रेस के पतन की कहानी 1990 के दशक में सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण की शुरुआत से जुड़ी है। इस दौरान कांग्रेस का नेतृत्व मंडल की राजनीति को समझने और उसका मुकाबला करने में विफल रहा, जिससे क्षेत्रीय दलों को उसके पारंपरिक वोटबैंक पर कब्जा करने का मौका मिल गया।
कांग्रेस का पुनरुद्धार तभी हो सकता है जब वह क्षेत्रीय दलों के वोटबैंक जाति और अल्पसंख्यक और बीजेपी के वोटबैंक उच्च जाति और हिंदुत्व के बीच से अपने लिए एक नया, मजबूत सामाजिक आधार बनाए। राहुल गांधी के सामने तीन रास्ते हैं।
1. क्षेत्रीय दलों को खत्म करना: यह सबसे मुश्किल रास्ता है क्योंकि इसके लिए सपा/राजद/बसपा के समर्पित वोटरों को तोड़ना होगा।
2. गठबंधन में 'बड़ा भाई' बनना: यह तभी संभव है जब कांग्रेस अपने संगठन को मजबूत करे और स्थानीय मुद्दों पर आक्रामक हो।
3. नया सामाजिक आधार बनाना: एक नया, व्यापक, और भावनात्मक नैरेटिव तैयार करना जो जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर गरीब, युवा और महिलाओं को आकर्षित करे।
फिलहाल, राहुल गांधी का मिशन 'कांग्रेस को पुनर्जीवित करना' है, जिसका सीधा अर्थ है क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक स्पेस को कम करना। यह एक राजनीतिक 'करो या मरो' की स्थिति है, और इसकी सफलता 2025 के बाद और आने वाले चुनावों में ही तय होगी।
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